पुकार
सुनो! इस धरा के कोने-कोने से गूंज रही है एक पुकार, आकाश की गहराइयों में घुली हुई है यह आवाज़। ये हवाएँ, जो कभी सहलाती थीं, अब रोष में हैं। ये नदियाँ, जो जीवन देती थीं, अब उफान में हैं। धरती की कोख, जिसने जन्म दिया, अब थक चुकी है। उसकी सांसों में धूल और धुएँ का भार है। क्या तुम सुन सकते हो? उस पक्षी की चीख, जिसके पर काट दिए गए? उस पेड़ की सिसकियाँ, जो जड़ से उखाड़ दिया गया? ये पुकार है उन लहरों की, जो सागर की गोद से दूर हो रही हैं। ये पुकार है उन जीवों की, जो हमारे लालच की भेंट चढ़ गए। सुनो! ये समय है जागने का। धरती पुकार रही है, आकाश पुकार रहा है, हमारी आत्मा पुकार रही है। अगर अब नहीं सुना, तो शायद कल की सुबह हमारी होगी ही नहीं। @कवि नवल