परपीड़ा में सुख -नवल

परपीड़ा में सुख

"मैं जब अपने दुख की 
गाँठ खोलता हूँ,

तो कुछ सुख अनजाने में 
किसी और तक पहुँच जाते हैं ।"

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दूसरे का दुःख, कई बार श्रोता के भीतर एक गुप्त सुख की अनुभूति करा देता है। यह सुख सहानुभूति से उत्पन्न नहीं होता, बल्कि उस तुलना से आता है जिसमें व्यक्ति यह अनुभव करता है कि "कम से कम मैं तो इससे बेहतर हूँ।"

जब कोई अपनी पीड़ा साझा करता है, तो वह यह सोचकर करता है कि शायद उसे कोई समझेगा, सुनेगा, कुछ कहेगा जो सही हो। लेकिन कई बार सुनने वाला उस दुःख को एक दृश्य की तरह देखता है– कला, अभिनय या समाचार की तरह–जहाँ वह भीतर से संतुष्ट होता है कि उसका जीवन कम टूटा हुआ है।

ऐसी स्थितियाँ बताती हैं कि समाज में करुणा का स्थान धीरे-धीरे आत्मतुष्टि ने ले लिया है। अब हम दुख सुनते नहीं, निहारते हैं–और उसी क्षण, दुःख का साझा करना आत्मीयता नहीं, एक एकांतिक मंच बन जाता है। यही सबसे करुण सच्चाई है – दुःख की गाँठ खुलती है, और कोई और मुस्कुरा उठता है।

 ~ नवल जाणी

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