मेरी चुप्पी -कविता (अनकही बातें -काव्य संग्रह) कवि : नवल जाणी भावार्थ: इस कविता में कवि ने "चुप्पी" को एक गहरे भाव और आत्मसंयम के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है। वे कहते है कि उन्होंने चुप रहना सीख लिया है, ठीक वैसे ही जैसे समुद्र अपनी गहराइयों में कई रहस्य छुपा कर रखता है। यह चुप्पी किसी कमजोरी का परिणाम नहीं, बल्कि एक समझदारी और आत्मनियंत्रण की अभिव्यक्ति है। कवि कहते हैं कि वह देखता, सुनता और समझता भी है, परंतु अपने शब्दों को तालों में बंद कर देता है क्योंकि हर सत्य हर किसी के लिए नहीं होता। यह संकेत करते है कि सभी लोग सत्य को ग्रहण करने की क्षमता नहीं रखते और हर बात सबके सामने कह देना उचित नहीं होता। कवि यह भी जानते हैं कि कौन व्यक्ति कितना गहरा है और कौन केवल सतह पर तैरता हुआ दिखावा कर रहा है। यानी, वे लोगों की गहराई, सच्चाई और उनके दिखावे को पहचानते हैं। अंत में वे स्पष्ट करते हैं कि उनकी चुप्पी कोई कमजोरी नहीं है, बल्कि यह एक इंतज़ार है — उस क्षण का जब वक़्त के पानी का बहाव थोड़ा ठहर जाए, और सच्चाई को समझने योग्य माहौल बन जाए। कविता "मेरी ...
किसी देश के किसी गाँव में Naval Jani किसी देश के किसी गाँव में, अब भोर मुर्गों की बाँग से नहीं, मोबाइल के अलार्म से जागती है। सूरज की पहली किरण खिड़की से झाँकती है, पर खिड़कियाँ अब खुले आँगन में नहीं, सीमेंट की ऊँची दीवारों में क़ैद हैं। पगडंडियों की मिट्टी पर अब कंक्रीट की सड़कें बिछ चुकी हैं, जहाँ बैलगाड़ियाँ चलती थीं, वहाँ अब ट्रैक्टर और बाइकें दौड़ती हैं। खेतों में किसान अब हल नहीं चलाते, बल्कि मोबाइल पर ऐप्स में मौसम देखते हैं, बीजों से पहले उधार का ब्याज उगता है, और फ़सलों से पहले लोन की किस्त कटती है। चौपालों की जगह व्हाट्सएप ग्रुप्स ने ले ली, जहाँ हँसी के ठहाके नहीं, सिर्फ़ इमोजी भेजे जाते हैं। जहाँ कभी बुज़ुर्ग पीपल तले बैठ कहानियाँ सुनाते थे, अब वे ऑनलाइन न्यूज़ पढ़ते हैं, और पुरानी यादों की एल्बमें गैलरी में बदल चुकी हैं। बच्चों के खेल अब मैदानों में नहीं, मोबाइल स्क्रीन में सिमट गए हैं, गिल्ली-डंडा, कबड्डी सब अतीत हो गए, अब ‘गेमिंग चेयर’ पर बैठकर वर्चुअल दुनिया के योद्धा बनते हैं। गाँव में बिजली तो आ गई, पर बात अब भी अधूरी है, लाइट से ज़्यादा, नेटवर्क आने की ख़ुशी होती है। ...
परपीड़ा में सुख "मैं जब अपने दुख की गाँठ खोलता हूँ, तो कुछ सुख अनजाने में किसी और तक पहुँच जाते हैं ।" *** *** दूसरे का दुःख, कई बार श्रोता के भीतर एक गुप्त सुख की अनुभूति करा देता है। यह सुख सहानुभूति से उत्पन्न नहीं होता, बल्कि उस तुलना से आता है जिसमें व्यक्ति यह अनुभव करता है कि "कम से कम मैं तो इससे बेहतर हूँ।" जब कोई अपनी पीड़ा साझा करता है, तो वह यह सोचकर करता है कि शायद उसे कोई समझेगा, सुनेगा, कुछ कहेगा जो सही हो। लेकिन कई बार सुनने वाला उस दुःख को एक दृश्य की तरह देखता है– कला, अभिनय या समाचार की तरह–जहाँ वह भीतर से संतुष्ट होता है कि उसका जीवन कम टूटा हुआ है। ऐसी स्थितियाँ बताती हैं कि समाज में करुणा का स्थान धीरे-धीरे आत्मतुष्टि ने ले लिया है। अब हम दुख सुनते नहीं, निहारते हैं–और उसी क्षण, दुःख का साझा करना आत्मीयता नहीं, एक एकांतिक मंच बन जाता है। यही सबसे करुण सच्चाई है – दुःख की गाँठ खुलती है, और कोई और मुस्कुरा उठता है। ~ नवल जाणी
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