भ्राता मिलन 😄

'हर शनिवार घर जाना जरूरी है और सोमवार अलसुबह जालौर -जैसलमेर एक्सप्रेस में आना .'  ' पुराने मैसी ट्रैक्टर के पीछे भारी भरकम ट्रोली जोत दी है, टोली का भार कैसे खींचेगा. ' ऐसे ही बहुत सारे भारी भरकम सवालों को सहने वाला भाई जब ग्रेनाइट सिटी के नाम से मशहूर जिले जालौर से आकर विष्णु कॉलोनी के प्लॉट में हमारे साथ रहता था.कक्षा ग्यारहवीं में राजस्थानी साहित्य के साथ अध्ययन करने के लिए घर सेदूर एक कम सुविधा वाले कमरे में रहना व स्कूल के बाद लगभग सोना ही उनका काम था.  भाई ने कई बार मुझे कहा कि 'सबसे अच्छा काम मुझे सारे दिन बिना स्नान किए सोना लगता है. ' उस गोल्डन समय को बीते पंद्रह- सोलह साल हो गए. आज भी याद है वो दिन, उन दिनों हररोज खाने में एक समय मिट्टी की हांडी में मूंग की दाल बनती थी, कभी कभी तो हद तब हो जाती, जब बिना 'तड़का' दिए हम दाल बनाते परंतु खाने वालो को इसकी भनक भी नहीं लगती. कभी कभी तो बहुत ज्यादा 'तड़का' दे देते एक बार तो भाई का हाथ गरम घी से जल गया था, जलने का निशान अभी भी है.  घर से दूर स्वयं के हाथों खाना बना कर बड़ा ही स्वादिष्ट व संतुष्ट कर देने वाला भोजन बनता. मूंग की दाल में बाजरे के दो-ढाई रोट हम बातों बातों में ही जीम जाते थे.  एक बारगी याद आता है कि खाना खाने के तुरंत बाद कोई मेहमान आ गए तो दुबारा जीमने बैठे तो एक एक ने दस दस गेहूं के वो़ंडा रोट जीम गए थे. बाजरा, मूंग दाल, देशी घी, तिलोड़ा वागोड़ा की लाल मिरचों, जीरा, देशी कणक सब सामान घर से ही आता था. भाई ने ग्यारहवीं से बी. ए. तक की पढ़ाई विष्णु कॉलोनी की कुटिया में की, आराम से रहे, खूब सोयें, बाद में घर गृहस्थी में वैसे सोने का अवसर ही नहीं मिला. एक ओर भाई जिसने पेमा कॉलेज में एडमिशन लिया, हॉस्टल का स्वाद चख कर हमारे बेड़े में शामिल हुआ. एक दिन की बात है, दिन क्या रात की बात है किसी कारणवश भाई हॉस्टल छोड़ कर रात को ही भाग कर कुटिया आ गया, पर संयोग से ही हम कुटिया में हाजिर नहीं थे, पूरी गर्मी की रात रसोई के टीन शेड पर गुजारी. उस समय सर्दियों में आज के समय की तरह 'हल्दी पार्टी' (ताजा हल्दी की सब्जी)  का प्रचलन नहीं था, सप्ताह में एक हलवा तो हम भी बना लेते थे. सौभाग्य से हम सभी के घर गांव में खुब 'धीणा- धापा' होता था, घी घर से डब्बे- भरणी भर भर के लाते थे. उस समय विष्णु कॉलोनी कुटिया में तपस्या करने भाई लोग ओर भी थे. धीरे -धीरे समय ने करवट बदली सभी भाई लोग अपना- अपना भाग्य आजमाने अलग-अलग हो गए, भाई ने बीए करने के बाद अपनी पैतृक जमीन में कृषि कार्य करने में दिलचस्पी दिखाई, आज कृषि क्षेत्र में अपने दम पर बेहतरीन कार्य करते हुए जीरा, ईसब, सरसों के बाद बागवानी खेती करके लोहा मनवाया. अब अनार, मौसमी, नींबू, खजूर के सैंकड़ो -हजारों पौधों को पनपा कर अपनी आमदनी का जरिया बना चुका है, आज अपने काम से बहुत खुश व संतुष्ट है. मारवाड़ के लोग अन्य प्रदेशों में जाकर अपना नाम व धन दोनों अर्जित कर रहे है, दूसरे भाई ने मारवाड़ियों की परम्परा को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया, आज बैंगलुरु में कॉस्मेटिक का व्यापार कर रहा है,  सेठ की भांति 'विथफैमिली' वहीं सैटल हो गया है ओर भई हम तो ग्यारह सालों से नन्हें मुन्नें बच्चों को हाथ में पेंसिल पकड़वाना व अक्षर ज्ञान सीखा रहे है, हमें अपने काम से आनंद आ रहा है, संतुष्ट भी है, परंतु बागवानी में मेरी बहुत रूचि है, इसलिए बागवानी करने वाले बागवान भाई के पास जाता रहता हूँ, ओर अपने शौक को पूरा कर रहा है.. इस बार संडे को जाना हुआ ओर बैंगलुरु वाले सेठ व बागवान  दोनों भाइयों से मिलना हुआ, मिलकर खुशी हुई व मन प्रसन्न होकर बहुत सारा आनंद दिया... इन छोटी छोटी बातों में, खिलखिलाकर हँसने मिलने में, पूराने किस्सों को याद कर कुरेदने में जो आनंद व संतोष मिलता है, वही मनुष्य जिंदगी का वास्तविक सुख है. आज के नए जमाने मिले है तो #सैल्फी तो बनती है भाई...
@नवल
समय: अक्टुबर  21, 2018 (रविवार)




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