गढ़वाल की एक सर्द रात
गढ़वाल की एक सर्द रात
गढ़वाल की इस सर्द रात में,
चीड़, चिनार और बुरांश के पेड़ों के सूखे पत्ते
जैसे एक पुरानी किताब के पन्नों से गिरते हैं।
उनमें बसी कहानियां आज भी हवा के साथ बहती हैं,
बादशाहीथॉल के S.R.T. कैंपस के आंगन से लेकर,
चंबा की पगडंडियों पर चलती हुई,
रानीचौरी के सेब के बगीचों तक जाती हैं।
वो पहाड़ी ढलानों पर गाय चराते ग्वाले,
जिनकी कंधों पर पड़ी रुमालों में बंधे जीवन के पल थे,
जैसे मेरे अपने भी कुछ पल वहीं रह गए।
शिक्षा स्नातक की वो क्लास,
जहां मैंने किताबों से ज्यादा
इन पहाड़ों के सादे और सच्चे लोग पढ़े।
हॉस्टल की मेस की टेबल पर वो किस्से,
जहां हर चाय की प्याली के साथ
कुछ सपनों का जिक्र होता,
और कुछ खामोशियां भी पिघलती थीं।
वो एक साल का समय,
जो मेरे जीवन का आधा हिस्सा बनकर,
यहीं कहीं छूट गया है।
पचीस साल बाद भी,
वो सर्दियाँ अब भी मेरी यादों में बसी हैं।
वो चट्टानों पर उकेरे हुए पल,
जिन्हें समय की सर्द रात भी धूमिल नहीं कर पाई।
तेरी यादें जैसे ठंडी हवा की तरह,
अब भी मेरी रूह में बहती हैं।
गढ़वाल की इस सर्द रात में,
वो सब कुछ जैसे वहीं है,
मेरे अंदर, और इस पहाड़ के हर कोने में,
जहाँ वो आनंद के पल जीए थे हमने,
जो अब भी मेरे साथ चल रहे हैं।
- नवल जाणी
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