रेत के टीले पर लालटेन- नवल जाणी
रेत के टीले पर लालटेन
रेगिस्तान की तपती रेत दिनभर सूरज की आग में जलती रही थी। अब साँझ ढल रही थी, और हवा में हल्की ठंडक घुलने लगी थी। आकाश धीरे-धीरे सिंदूरी रंग में ढल रहा था, और दूर कहीं ऊँटों की घंटियाँ बज रही थीं। इसी सुनसान रेगिस्तान में, एक बूढ़ा राहगीर धीरे-धीरे चलता आ रहा था।
उसकी चाल में थकान थी, पर आँखों में अनकही कहानियों का समंदर लहरा रहा था। पीठ पर एक झोला लटक रहा था, और हाथों में एक पुरानी लालटेन थी। उसकी शीशे की दीवारों पर धूल की मोटी परत जमी हुई थी, मानो कई वर्षों से किसी ने उसे छुआ तक न हो।
राहगीर टीले पर रुका, उसने धीरे-से लालटेन को रेत पर रखा और उसकी काँच की सतह को अपनी काँपती उँगलियों से साफ करने लगा। कुछ देर बाद उसने बाती को ऊपर किया, माचिस की तीली जलाई और लालटेन को रोशन कर दिया। हल्की-सी लौ काँपी, फिर स्थिर हो गई। रेत के कणों पर रोशनी फैल गई, जैसे अंधेरे से संवाद कर रही हो।
हवा धीरे-धीरे तेज़ होने लगी थी। लालटेन की लौ काँपती, झिलमिलाती, मगर बुझने को तैयार नहीं थी। राहगीर बैठ गया, उसकी आँखें उस जलती लौ पर टिकी रहीं। उसे अपनी ज़िंदगी की वो रातें याद आने लगीं, जब वह इसी रेगिस्तान में अपने काफिले के साथ सफर करता था। तब उसके पास साथियों की हँसी थी, कहानियाँ थीं, उम्मीदें थीं। लेकिन वक़्त की आँधियाँ सब कुछ बहा ले गईं। अब सिर्फ़ यादें थीं और यह पुरानी लालटेन, जो कभी उसके काफिले की राह रोशन किया करती थी।
रात घनी होती जा रही थी। तारों की चादर आसमान पर फैल चुकी थी। दूर कहीं कोई सियार हुआँ-हुआँ कर रहा था, और हवा अब ठंडी हो चली थी। राहगीर ने अपने झोले से एक पुरानी रोटी निकाली, धीरे-धीरे कौर तोड़कर खाने लगा। लालटेन की रोशनी में उसका झुर्रियों भरा चेहरा चमक उठा।
रेत पर उड़ती परछाइयाँ मानो उसके बीते दिनों की झलक दिखा रही थीं। आँखों में नमी थी, मगर होंठों पर हल्की मुस्कान भी थी। शायद उसे इस बात की तसल्ली थी कि कुछ भी रहे न रहे, उसकी यह लालटेन अब भी जल रही थी, जैसे उसकी कहानियों का एकमात्र गवाह।
हवा के एक तेज़ झोंके से लौ अचानक जोर से लहरा गई, मगर बुझी नहीं। राहगीर ने हल्की-सी मुस्कान के साथ अपनी आँखें बंद कर लीं। रात और गहरी हो रही थी, मगर उस टीले पर वह अकेली लालटेन अब भी जल रही थी—रेगिस्तान के सन्नाटे में, अंधेरे से जूझती हुई।
-Naval Jani
वाह्ह्हह्ह्ह्ह!
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